सिराज औरंगाबादी के अशआर
वो अ’जब घड़ी थी मैं जिस घड़ी लिया दर्स नुस्ख़ा-ए-इ’श्क़ का
कि किताब अक़्ल की ताक़ पर जूँ धरी थी त्यूँ ही धरी रही
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ख़ल्वत-ए-इंतिज़ार में उस की
दर-ओ-दीवार का तमाशा है
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मत कहो मुझ सीं क़िस्सा-ए-फ़रहाद
ख़्वाब-ए-शीरीं में आज सोता हूँ
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शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगी
न ख़िरद की बख़िया-गरी रही न जुनूँ की पर्दा-दरी रही
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कभी सम्त-ए-ग़ैब सीं क्या हवा कि चमन ज़ुहूर का जल गया
मगर एक शाख़-ए-निहाल-ए-ग़म जिसे दिल कहो सो हरी रही
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere