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Sufinama
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बहराम जी

1828 - 1895 | हैदराबाद, भारत

उर्दू अदब का एक पारसी शाइ’र

उर्दू अदब का एक पारसी शाइ’र

बहराम जी के अशआर

मस्नद-ए-किम-ख़्वाब शाहाँ को कहाँ हासिल ये क़्दर

मंजिलत तेरे गदाओं की जो ख़ाकस्तर में है

क़ैदी-ए-ज़ुल्फ़ कभी गाह असीर-ए-गेसू

हमने इस दिल को इसी तरह का सौदा देखा

आरज़ू-ए-दीन-ओ-दुनिया अब नहीं ‘बहराम’ कुछ

पर मिरा निकले उम्मीद-ए-रहमत-ए-यज़्दाँ में दम

सर्व-ए-गुलशन हो सनोबर हो कि हो फ़ित्ना-ए-हश्र

सच तो ये है कि ग़ज़ब वो क़द-ए-बाला देखा

उस के नज़्ज़ारे की हो कैसे दिल-ए-इंसाँ को ताब

जल्व-ए-ज़ात-ए-ख़ुदा तेरे रुख़-ए-अनवर में है

हैं ख़जिल क़ौस-ओ-हिलाल-ओ-ख़ंजर-ओ-तेग़-ए-सितम

क़ातिल-ए-आ’लम है तेरी अबरु-ए-पुर-ख़म नहीं

खींचता हूँ मैं तसव्वुर से ब-दिल तस्वीर-ए-यार

आफ़ताब-ए-सुब्ह साँ महबूब मेरे बर में है

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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