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शाह अकबर दानापूरी

1843 - 1909 | दानापुर, भारत

बिहार के महान सूफ़ी कवि

बिहार के महान सूफ़ी कवि

शाह अकबर दानापूरी के अशआर

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इ’श्क़ में आ’शिक़ की ये मेराज है

क़त्ल हो क़ातिल का मुँह देखा करे

किस घर में किस हिजाब में जाँ निहाँ हो तुम

हम राह देखते हैं तुम्हारी कहाँ हो तुम

रंग-ए-गुल फीका है जिस के सामने

इतना रंगीं यार का रुख़्सार है

करे चारों तरफ़ से क्यूँ उस को आसमाँ सजदे

ज़मीं को फ़ख़्र हासिल है रसूलल्लाह की मरक़द का

मर मिटे तेरी मोहब्बत मैं मोहब्बत वाले

उन पे रश्क आता है ये लोग हैं क़िस्मत वाले

भूलेगा 'अकबर' उस्ताद का ये मिस्रा

साक़ी दिए जा साग़र जब तक हो बे-होशी

हैं शौक़-ए-ज़ब्ह में आशिक़ तड़पते मुर्ग़-ए-बिस्मिल से

अजल तो है ज़रा कह आना ये पैग़ाम क़ातिल से

या-ख़ुदा 'अकबर' की कश्ती को निकाल

तू ही इस बेड़े का खेवन-हार है

देखें ख़ुश हो के क्यूँ आप तमाशा अपना

आईना अपना है अ’क्स अपना है जल्वा अपना

मुँह फेरे हुए तू मुझ से जाता है कहाँ

मर जाएगा आ’शिक़ तिरा आरे आरे

या-ख़ुदा 'अकबर' की कश्ती को निकाल

तू ही इस बेड़े का खेवन-हार है

हाज़िर है बज़्म-ए-यार में सामान-ए-ऐ’श सब

अब किस का इंतिज़ार है 'अकबर' कहाँ हो तुम

मुसलमाँ दोनों फिर बाहम निफ़ाक़ आह

किधर ढूँढें तुझे इत्तिफ़ाक़ आह

हैं शौक़-ए-ज़ब्ह में आशिक़ तड़पते मुर्ग़-ए-बिस्मिल से

अजल तू ही ज़रा कह आना ये पैग़ाम क़ातिल से

इ’श्क़ में आ’शिक़ की ये मेराज है

क़त्ल हो क़ातिल का मुँह देखा करे

दहन है छोटा कमर है पतली सुडौल बाज़ू जमाल अच्छा

तबीअत अपनी भी है मज़े की पसंद अच्छी ख़याल अच्छा

कमर उस की नज़र आए साबित हो दहन

गुफ़्तुगू उस में अ’बस उस में है तकरार अ’बस

कोई रश्क-ए-गुलिस्ताँ है तो कोई ग़ैरत-ए-गुलशन

हुए क्या क्या हसीं गुलछर्रः पैदा आब-ओ-गिल से

ब-जुज़ आवाज़ ज़ंजीर-ए-गिराँ कुछ ख़ुश नहीं आता

यहाँ तक भर गए हैं कान आवाज़-ए-सलासिल से

पीरी ने भरा है फिर जवानी का रूप

आ’शिक़ हुए हम एक बुत-ए-कम-सिन के

رند بھی اکبرؔ ہے صوفی بھی ہے عاشق وضع بھی

کہتے ہیں اربابِ معنی میرا دیواں دیکھ کر

ہم سے پھر جائے زمانہ بھی تو کیا ہوتا ہے

دل ہے مضبوط فقیروں کا خدا ہوتا ہے

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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