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कौसर ख़ैराबादी

- 1922 | गया, भारत

कौसर ख़ैराबादी के अशआर

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निकलती है सदाएँ मर्हबा हर ज़ख़्म से क़ातिल

हमें लज़्ज़त मिली क्या जाने क्या शौक़-ए-शहादत में

वस्ल में झगड़ा बखेड़ा रात-भर उन से रहा

साही का काँटा अदू ने ज़ेर-ए-बिस्तर रख दिया

ख़ुशी से पाँव फैलाते हैं क्या क्या कुंज-ए-तुर्बत में

अजब लज़्ज़त है तिरे हाथ से क़ातिल शहादत में

ख़ून-ए-उ’श्शाक़ से क़ातिल ने खेली होली

सफ़-ए-मक़्तल में कभी रंग उछलने दिया

बज़्म-ए-ख़ल्वत में वो सोते हैं दुपट्टा ताने

जल्वा-ए-हुस्न-ए-ख़ुदा-दाद है अंदर-बाहर

किस को सुनाऊँ किस से कहूँ माजरा-ए-ग़म

गूँगे का ख़्वाब है ये मिरी दास्ताँ नहीं

अदा-ओ-नाज़-ए-क़ातिल हूँ कभी अंदाज़-ए-बिस्मिल हूँ

कहीं मैं ख़ंदः-ए-गुल हूँ कहीं सोज़-ए-अनादिल हूँ

अहल-ए-आ’लम कहते हैं जस को शहंशाह-ए-सुख़न

मैं भी हूँ शागिर्द 'कौसर' अस जगत उस्ताद का

क्यूँ मैं फ़िराक़-ए-यार में आह-ओ-फ़ुग़ाँ करूँ

'कौसर' दिल-ए-हज़ीं जरस-ए-कारवाँ नहीं

मुबारक ज़ाहिदों को फिर बाग़-ए-ख़ुल्द 'कौसर'

जन्नत मेरे क़ाबिल है मैं जन्नत के क़ाबिल हूँ

कारी लगी जिगर पे कटारी निगाह की

बे-ख़ुद हुआ ज़मीं पर गिरा दिल से आह की

मा'शूक़-ए-पा-बोस में आशिक़ ने बिछाई आँखें

फ़र्श-ए-गुल पर कभी इस शोख़ को चलने दिया

बज़्म-ए-ख़ल्वत में अगर छुप के हया आने लगी

बढ़ के आवाज़ दी शोख़ी ने कि बाहर बाहर

दिल में जिगर में आँखों में रहिए ख़ुशी से आप

फिर ये कहियेगा कोई मिलता मकाँ नहीं

अदा-ओ-नाज़-ए-क़ातिल हूँ कभी अंदाज़-ए-बिस्मिल हूँ

कहीं मैं ख़ंदा-ए-गुल हूँ कहीं सोज़-ए-अ’नादिल हूँ

जफ़ा-ओ-जौर के सदक़े तसद्दुक़-बर-ज़बानी पर

सुनाते हैं वो लाखों बे-नुक़त इस बे-दहानी पर

जोश-ए-जुनूँ में दाग़-ए-जिगर मेरे भरे

गुलचीं हमारे बाग़ को ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ नहीं

कर के दा'वा ख़ून-ए-नाहक़ का बहुत नादिम हुआ

अर्सा-ए-महशर में क़ातिल को परेशाँ देख कर

किस को सुनाऊँ किस से कहूँ माजरा-ए-ग़म

गूँगे का ख़्वाब है ये मिरी दास्ताँ नहीं

चाँद सी पेशानी सिंदूर का टीका नहीं

बाम-ए-का'बा पर चराग़ इस ने जला कर रख दिया

'कौसर' वस्ल शाह-ए-हसीनाँ की आरज़ू

मुझ को नहीं जहाँ में हवस माल-ओ-जाह की

चाँद सी पेशानी सिंदूर का टीका नहीं

बाम-ए-का'बा पर चराग़ इस ने जला कर रख दिया

सख़्त-जानी से गला कटता नहीं

ए'तिबार-ए-ख़ंजर-ए-क़ातिल गया

है मुनव्वर रुख़-ए-पुर-नूर से सब घर-बाहर

एक सा जल्वा-ए-ख़ुर्शीद है अंदर-बाहर

मुजस्सम सूरत-ए-ग़म हूँ सरापा हसरत-ए-दिल हूँ

मैं ज़िंदों में दाख़िल हूँ मैं मुर्दों में शामिल हूँ

दिल को बिठाए देती है तकलीफ़ राह की

क्यूँ कर कोई उठाए ये गठरी गुनाह की

वस्ल में गेसू-ए-शब-गूँ ने छुपाई आरिज़

लैलतुल-क़द्र में क्यूँ चाँद निकलने दिया

बाग़-ए-आ’लम में हमें फूलने-फलने दिया

आसमाँ ने कोई अरमाँ निकलने दिया

जोश-ए-जुनूँ में दाग़-ए-जिगर मेरे भरे

गुलचीं हमारे बाग़ को ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ नहीं

सरगर्म-ए-क़त्ल कब बुत-ए-ना-मेहरबाँ नहीं

प्यासा मिरे लहू का फ़क़त आसमाँ नहीं

जो अ’ज़्म-ए-क़त्ल है आँखों पे पट्टी बाँध ली क़ातिल

मबादा तुझ को रहम जाए मेरी ना-तवानी पर

ख़ुदा से डर ज़रा 'कौसर' कि तू तो खोए बैठा है

सरापा दीन-ओ-ईमान इक बुत-ए-काफ़िर की चाहत में

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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