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ख़्वाजा मीर असर

1735 - 1794 | दिल्ली, भारत

ख़्वाजा मीर असर के अशआर

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उन बुतों के लिए ख़ुदा करे

दीन-ओ-दिल यूँ कोई भी खोता है

ख़फ़ा उस से क्यूँ तू मिरी जान है

'असर' तू कोई दम का मेहमान है

जन्नत है उस बग़ैर जहन्नम से भी ज़ुबूँ

दोज़ख़ बहिश्त हैगी अगर यार साथ है

लगा ले गए जहाँ दिल को

आह ले जाइए कहाँ दिल को

यूँ आँख से आँख में मिला है

इतना तो मिरा दिल-ओ-जिगर है

सर्फ़-ए-ग़म हम ने नौजवानी की

वाह क्या ख़ूब ज़िंदगानी की

हर-दम आती है गरचे आह पर आह

पर कोई कारगर नहीं आती

ग़म तिरा दिल से कोई निकले है

आह हर-चंद मैं निकाल रहा

नहीं है ये क़ातिल तग़ाफ़ुल का वक़्त

ख़बर ले कि बाक़ी अभी जान है

जान-ओ-दिल से भी गुज़र जाएँगे

अगर ऐसा ही ख़फ़ा कीजिएगा

क्या करूँ आह मैं 'असर' का इ'लाज

इस घड़ी उस का जी ही जाता है

किधर की ख़ुशी कहाँ की शादी

जब दिल से हवस ही सब उड़ा दी

कौन रहता है तेरे ग़म के सिवा

इस दिल-ए-ख़ानुमाँ-ख़राब के बीच

नाला करना कि आह करना

दिल में 'असर' उस के राह करना

गुलों की तरह चाक का बहार

मुहय्या हर इक याँ गरेबान है

तुम जौर-ओ-जफ़ा करो जो चाहो

इन बातों पे कब मुझे नज़र है

तेरे वा'दों का ए'तिबार किसे

गो कि हो ताब-ए-इंतिज़ार किसे

गो ज़ीस्त से हैं हम आप बेज़ार

इतना पे जान से ख़फ़ा कर

नाले बुलबुल ने गो हज़ार किए

एक भी गुल ने पर सुना ही नहीं

ग़म तिरा दिल से कोई निकले है

आह हर-चंद मैं निकाल रहा

किस तरह दिखाऊँ आह तुझ को

मैं अपनी ये ख़राब-हाली

बुत-ए-काफ़िर की बे-मुरव्वतियाँ

ये हमें सब ख़ुदा दिखाता है

अभी तो लग चलना था 'असर' उस गुल-बदन के साथ

कोई दिन देखना था ज़ख़्म-ए-दिल बे-तर्ह आला था

मानूस था वो बुत कसो से

टुक राम किया ख़ुदा-ख़ुदा कर

रहा इंतिज़ार भी यास

हम उमीद-ए-विसाल रखते थे

दिल-ओ-ग़म में और सीना-ओ-दाग़ में

रिफ़ाक़त का याँ अहद-ओ-पैमान है

क्या कहूँ तुझ से अब के मैं तुझ को

किस तरह देखता हूँ ख़्वाब के बीच

तेरे मुखड़े को यूँ तके है दिल

चाँद के जों रहे चकोर लगा

कहूँ क्या ख़ुदा जानता है सनम

मोहब्बत तिरी अपना ईमान है

मुश्किल है ता कि हस्ती है जावे ख़ुदी का शिर्क

तार-ए-नफ़स नहीं है ये ज़ुन्नार साथ है

जी अब के बच्चा ख़ुदा-ख़ुदा कर

फिर और बुतों की चाह करना

क्या कहे वो कि सब हुवैदा है

शान तेरी तिरी किताब के बीच

याँ तग़ाफ़ुल में अपना काम हुआ

तेरे नज़दीक ये जफ़ा ही नहीं

यूँ ख़ुदा की ख़ुदाई बर-हक़ है

पर 'असर' की हमें तो आस नहीं

ग़म को बा-ग़म बहम कीजे

गर ग़म है तो ग़म का ग़म कीजे

दिन इंतिज़ार का तो कटा जिस तरह कटा

लेकिन किसो तरह कटी रात रह गई

जों गुल तू हँसे है खिल-खिला कर

शबनम की तरह मुझे रुला कर

तू निगह की की ख़ुदा जाने

हम तो डर से कभो निगाह की

कर के दिल को शिकार आँखों में

घर करे है तो यार आँखों में

हूँ तीर-ए-बला का मैं निशान:

शमशीर-ए-जफ़ा का मैं सिपर हूँ

कहूँ क्या ख़ुदा जानता है सनम

मोहब्बत तिरी अपना ईमान है

रोज़-ओ-शब किस तरह बसर मैं करूँ

ग़म तिरा अब तो जी ही खाता है

दम-ब-दम यूँ जो बद-गुमानी है

कुछ तो आ’शिक़ की तुझ को चाह पड़ी

'असर' इन सुलूकों पे क्या लुत्फ़ है

फिर उस बे-मुरव्वत के घर जाइए

अब ग़ैर से भी तेरी मुलाक़ात रह गई

सच है कि वक़्त जाता रहा बात रह गई

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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