ख़्वाजा मीर असर के अशआर
उन बुतों के लिए ख़ुदा न करे
दीन-ओ-दिल यूँ कोई भी खोता है
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ख़फ़ा उस से क्यूँ तू मिरी जान है
'असर' तू कोई दम का मेहमान है
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जन्नत है उस बग़ैर जहन्नम से भी ज़ुबूँ
दोज़ख़ बहिश्त हैगी अगर यार साथ है
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यूँ आँख से आँख में मिला है
इतना तो मिरा दिल-ओ-जिगर है
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सर्फ़-ए-ग़म हम ने नौजवानी की
वाह क्या ख़ूब ज़िंदगानी की
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हर-दम आती है गरचे आह पर आह
पर कोई कारगर नहीं आती
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ग़म तिरा दिल से कोई निकले है
आह हर-चंद मैं निकाल रहा
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नहीं है ये क़ातिल तग़ाफ़ुल का वक़्त
ख़बर ले कि बाक़ी अभी जान है
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जान-ओ-दिल से भी गुज़र जाएँगे
अगर ऐसा ही ख़फ़ा कीजिएगा
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क्या करूँ आह मैं 'असर' का इ'लाज
इस घड़ी उस का जी ही जाता है
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किधर की ख़ुशी कहाँ की शादी
जब दिल से हवस ही सब उड़ा दी
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कौन रहता है तेरे ग़म के सिवा
इस दिल-ए-ख़ानुमाँ-ख़राब के बीच
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गुलों की तरह चाक का ऐ बहार
मुहय्या हर इक याँ गरेबान है
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तुम जौर-ओ-जफ़ा करो जो चाहो
इन बातों पे कब मुझे नज़र है
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तेरे वा'दों का ए'तिबार किसे
गो कि हो ताब-ए-इंतिज़ार किसे
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गो ज़ीस्त से हैं हम आप बेज़ार
इतना पे न जान से ख़फ़ा कर
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नाले बुलबुल ने गो हज़ार किए
एक भी गुल ने पर सुना ही नहीं
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ग़म तिरा दिल से कोई निकले है
आह हर-चंद मैं निकाल रहा
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किस तरह दिखाऊँ आह तुझ को
मैं अपनी ये ख़राब-हाली
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बुत-ए-काफ़िर की बे-मुरव्वतियाँ
ये हमें सब ख़ुदा दिखाता है
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अभी तो लग न चलना था 'असर' उस गुल-बदन के साथ
कोई दिन देखना था ज़ख़्म-ए-दिल बे-तर्ह आला था
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मानूस न था वो बुत कसो से
टुक राम किया ख़ुदा-ख़ुदा कर
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न रहा इंतिज़ार भी ऐ यास
हम उमीद-ए-विसाल रखते थे
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दिल-ओ-ग़म में और सीना-ओ-दाग़ में
रिफ़ाक़त का याँ अहद-ओ-पैमान है
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क्या कहूँ तुझ से अब के मैं तुझ को
किस तरह देखता हूँ ख़्वाब के बीच
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तेरे मुखड़े को यूँ तके है दिल
चाँद के जों रहे चकोर लगा
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कहूँ क्या ख़ुदा जानता है सनम
मोहब्बत तिरी अपना ईमान है
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मुश्किल है ता कि हस्ती है जावे ख़ुदी का शिर्क
तार-ए-नफ़स नहीं है ये ज़ुन्नार साथ है
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जी अब के बच्चा ख़ुदा-ख़ुदा कर
फिर और बुतों की चाह करना
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क्या कहे वो कि सब हुवैदा है
शान तेरी तिरी किताब के बीच
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याँ तग़ाफ़ुल में अपना काम हुआ
तेरे नज़दीक ये जफ़ा ही नहीं
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यूँ ख़ुदा की ख़ुदाई बर-हक़ है
पर 'असर' की हमें तो आस नहीं
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ग़म को बा-ग़म बहम न कीजे
गर ग़म है तो ग़म का ग़म न कीजे
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दिन इंतिज़ार का तो कटा जिस तरह कटा
लेकिन किसो तरह न कटी रात रह गई
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जों गुल तू हँसे है खिल-खिला कर
शबनम की तरह मुझे रुला कर
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तू निगह की न की ख़ुदा जाने
हम तो डर से कभो निगाह न की
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कर के दिल को शिकार आँखों में
घर करे है तो यार आँखों में
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हूँ तीर-ए-बला का मैं निशान:
शमशीर-ए-जफ़ा का मैं सिपर हूँ
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कहूँ क्या ख़ुदा जानता है सनम
मोहब्बत तिरी अपना ईमान है
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रोज़-ओ-शब किस तरह बसर मैं करूँ
ग़म तिरा अब तो जी ही खाता है
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दम-ब-दम यूँ जो बद-गुमानी है
कुछ तो आ’शिक़ की तुझ को चाह पड़ी
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'असर' इन सुलूकों पे क्या लुत्फ़ है
फिर उस बे-मुरव्वत के घर जाइए
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अब ग़ैर से भी तेरी मुलाक़ात रह गई
सच है कि वक़्त जाता रहा बात रह गई
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere