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अफ़क़र मोहानी

1887 - 1971 | उन्नाव, भारत

मा’रूफ़ हिन्दुस्तानी शाइ’र और हाजी वारिस अ’ली शाह के मुरीद

मा’रूफ़ हिन्दुस्तानी शाइ’र और हाजी वारिस अ’ली शाह के मुरीद

अफ़क़र मोहानी के अशआर

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गुज़र जा मंज़िल-ए-एहसास की हद से भी 'अफ़्क़र'

कमाल-ए-बे-खु़दी है बे-नियाज़-ए-होश हो जाना

ख़ुशी है ज़ाहिद की वर्ना साक़ी ख़याल-ए-तौबा रहेगा कब तक

कि तेरा रिंद-ए-ख़राब 'अफ़्क़र' वली नहीं पारसा नहीं है

चमक उट्ठी है क़िस्मत एक ही सज्दः में क्या कहना

लिए फिरता है पेशानी पे नक़्श-ए-आस्ताँ कोई

तिरी महफ़िल में जो आया ब-अंदाज़-ए-अ’जब आया

कोई लैला-अदा आया कोई मजनूँ-लक़ब आया

अक्सर पलट गई है शब-ए-इंतिज़ार मौत

मरने दर्द-ए-दिल ने दिया ता-सहर मुझे

ख़िरद है मजबूर अक़्ल हैराँ पता कहीं होश का नहीं है

अभी से आलम है बे-ख़ुदी का अभी तो पर्दा उठा नहीं है

वो बहार-ए-उ’म्र हो या ख़िज़ाँ नहीं कोई क़ाबिल-ए-ए'तिना

यक़ीं था मुझ को सुरूर पर है ए'तिबार ख़ुमार पर

उसी को कामयाब-ए-दीद कहते हैं नज़र वाले

वो आशिक़ जो हलाक-ए-हसरत-ए-दीदार हो जाए

ग़म-ए-दौराँ का फिर क्या ज़िक्र 'अफ़्क़र'

मय-ए-रंगीं का जब पैमानः आया

ये है मुख़्तसर फ़साना मिरी ज़िंदगी का नासेह

ग़म-ए-आशिक़ी फ़क़त था ग़म-ए-दो-जहाँ से पहले

अब वो गुल रहे और वो गुल-सिताँ

चाँदनी चार-दिन की मगर हो गई

अहल-ए-जफ़ा ने फिर उठाया जफ़ा से हाथ

लज़्ज़त-शनास-ए-ज़ुल्म-ओ-सितम देख कर मुझे

नहीं मौक़ूफ़ दुनिया ही में चर्चा ख़ून-ए-नाहक़ का

सर-ए-महशर भी क़ातिल को पशेमाँ कर के छोड़ूँगा

दवाँ हो कश्ती-ए-उ’म्र-ए-रवाँ यूँ बहर-ए-हस्ती में

कहीं उभरी कहीं डूबी कहीं मा’लूम होती है

उस की नाकामी-ए-क़िस्मत पर कहाँ तक रोइए

ग़र्क़ हो जाए सफ़ीन: जिस का साहिल के क़रीब

हज़ार रंग-ए-ज़माना बदले हज़ार दौर-ए-नशात आए

जो बुझ चुका है हवा-ए-ग़म से चराग़ फिर वो जला नहीं है

गुज़र जा मंज़िल-ए-एहसास की हद से भी 'अफ़्क़र'

कमाल-ए-बे-खु़दी है बे-नियाज़-ए-होश हो जाना

जज़्बात का बयाँ है शरह-ए-ग़म-ए-निहाँ है

मक़्बूल हो क्यूँ फिर 'अफ़्क़र' कलाम तेरा

बहार आने की आरज़ू क्या बहार ख़ुद है नज़र का धोका

अभी चमन जन्नत-नज़र है अभी चमन का पता नहीं है

मिली सज्दा की इजाज़त जूँही पासबाँ से पहले

मुझे मिल गई ख़ुदाई तेरे आस्ताँ से पहले

हुआ ये मा’लूम बा’द-मुद्दत किसी की नैरंगी-ए-सितम से

सितम ब-अंदाज़ा-ए-अदा है अदा ब-क़द्र-ए-जफ़ा नहीं है

ये आहें हैं मेरी ये नाले हैं मेरे

जिन्हें आसमाँ आसमाँ देखते हैं

कैसी बहार कैसा नशेमन कहाँ के गुल

रोते हैं बाल-ओ-पर मुझे और बाल-ओ-पर को मैं

अज़ल से है आसमाँ ख़मीदा कर सका फिर भी एक सजदा

वो ढूँढता है जिस आस्ताँ को वो आस्ताना मिला नहीं है

कहीं नाकाम रह जाये ज़ौक़-ए-जुस्तुजू अपना

अदम से भी ख़याल-ए-यार-ए-हम-आग़ोश हो जाना

वहाँ भी कर लिया सज्दा ख़ुदा को

कोई जब राह में बुत-ख़ाना आया

ख़ुशी है ज़ाहिद की वर्ना साक़ी ख़याल-ए-तौबा रहेगा कब तक

कि तेरा रिंद-ए-ख़राब 'अफ़्क़र' वली नहीं पारसा नहीं है

तुझे मालूम क्या ख़्वाब-ए-हस्ती देखने वाले

वही हस्ती है हस्ती जो निसार-ए-यार हो जाए

बहार आने की आरज़ू क्या बहार ख़ुद है नज़र का धोका

अभी चमन जन्नत-नज़र है अभी चमन का पता नहीं है

ख़ुदा रक्खे अजब कैफ़-ए-बहार-ए-कू-ए-जानाँ है

कि दिल है जल्वः-सामाँ तो नज़र जन्नत-ब-दामाँ है

अब उस मंज़िल पे पहुँचा है किसी का बे-ख़ुद-ए-उल्फ़त

जहाँ पर ज़िंदगी-ओ-मौत का एहसास यकसाँ है

हमें मिल गया है तिरा आस्ताना कहीं अब आना कहीं अब जाना

मुक़द्दर से बिगड़ा हो जिस के ज़माना यहाँ अपनी बिगड़ी वो क़िस्मत बना ले

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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